Wednesday, June 22, 2011


      
         नव संदेश

वृक्षों ने फुनगी पर अपने
टाँग दिए हैं नव संदेश
तू जाग - जाग, ऐ मेरे देश ।

कहाँ गईं? सो गईं बहारें
देखो धरती में पडी दरारें
सो जाए कहीं न ये कलरव
खो जाए कहीं न ये पराग
तू जाग - जाग  , ऐ मेरे देश।

क्यों नहीं सोचता यह मानव?
क्या शेष  नहीं कुछ मानवता?
जब हम ही नहीं तो इस जीवन का
कुछ मोल भला फिर हो सकता?

न हमें भुला
तू हमें जिला
फैला दे जन-जन में संदेश
ऐ मेरे देश
ऐ मेरे देश
तू जाग - जाग ऐ मेरे देश ।
तू अरे जाग! ऐ मेरे देश ।

6 comments:

  1. सार्थक सन्देश देती अच्छी रचना

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  2. बहुत सुन्दर संदेश देता दे्शभक्ति की भावना से ओत प्रोत गीत्।

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  3. ह्रदय को छू गयी आपकी यह कविता...मन भावुक हो गया...
    आपके कलम को नमन है...
    केवल भाव ही नहीं, शिल्प और प्रवाहमयता भी ऐसी है इस कविता की जो मन बाँध लेती है....

    आभार इस सुन्दर रचना को पढने का अवसर देने के लिए...

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  4. वहारें तो सो ही चुकी है। इससे पहले कि कलरव सो जाये, पराग खो जाये तू जाग जा । यदि इन्सान में इन्सानियत न रही मानव में मानवता नहीं रही तो फिर इस जीवन का मूल्य ही क्या है। वर्तमान समय में ऐसी ही रचनाओं की जरुरत है । न सोया हुआ है न जागा हुआ है तंद्रा में है।

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  5. बहुत ही सुन्दर ओजस्वी आह्वान गीत....बहुत सुन्दर है आपका ब्लाग ...सादर !!!

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