Saturday, October 20, 2012

एक शाम



कल मुझको पगडण्डी पर चलते
एक शाम मिली जो तन्हा थी
वो तन्हा थी मैं थी तन्हा
वो मुस्काई

मैं मुस्काई
वो मुस्काई
बस ! मौन हमारी भाषा थी

हवा थम गई , भूल के बहना
लगी कान में सबके कहना
एक शाम कुछ भटक गई है
पगडंडी पर अटक गई है

क्यूँ तन्हा तुम मैनें पूछा ?
क्यूँ तन्हा तुम उसने पूछा ?

गम मुझे कहीं था सपनों का
गम उसे कहीं था अपनों का

सूरज के संग दिन भर भटकी
सांझ हुई चौखट पर अटकी
अब वो मुझसे पूछ रहा है क्या मैं जाऊं ?

उसके माथे के तिनकों से
बालों को मैनें सुलझाया
दूबों के कोरों पर अटकी शबनम को
हौले से अंजुल में भर कर
उसकी आँखों को धुलवाया

मासूम कांपते अधरों ने
जब सूरज को अलविदा कहा
मेरा दिल रो कर बोला
क्यों तूने इतना दर्द सहा ?

वो सम्भल गई
बोली , सुन अपनी उमर गई

वह तन्हा थी , मैं थी तन्हा
पर नहीं अभी हम तन्हा थे
हम एक राह के राही थे
हम तन्हाई के साथी थे

Thursday, October 18, 2012

तुमसे मिल कर




तुमसे मिल कर 

तुमसे मिल कर मैनें जाना 
क्या होता है दर्द
कहाँ पर पाया जाता है 

तुमसे मिल कर मैनें माना
भरी आँख से कैसे कब 
मुस्काया जाता है 

साथ चले तब मैनें जाना 
सबको दिल का हाल नहीं 
बतलाया जाता है 

बिछड गये तब मैनें जाना 
दिल के   दर्द को हँस कर भी 
बहलाया जाता है 



Wednesday, August 15, 2012

ठहरा हुआ पानी




ठहरे हुए पानी में , हर चीज ठहर जाती है
ठहरे हुए पानी में , परछाईँ नजर आती है !

           ठहरे हुए पानी में , वो चाँद नजर आता है
           तन्हाई से घबरा कर , जो पानीमें छुप जाता है  !

कभी कभी मिलता है , पल भर के लिए कोई हमें
पर उसकी याद हमें , उम्र भर रह जाती है  !

         चाँद के ना होने का , क्यों रात से हम शिकवा करें
         बस एक सितारा भी हो , तो रात हँस के गुजर जाती है !


Friday, April 13, 2012




आसमान की सैर


आओ बच्चो तुम्हें सिखाएं
हम एक ऐसी पतंग बनाएं
सपनों का कागज हो उसमें
अरमानों की डोर लगाएँ
देख हवा का रुख , चुपके से
बैठ पतंग पर खुद उड़ जाएँ !


आसमान पर उत्तर में है
चमकीला मोहक ध्रुब तारा
वहीं चाँद के अंदर बैठी
नानी देख रही जग सारा

हम मामा के संग बादल पर
आसमान की सैर करेगें
मालपुए जो मामी देगीं
उनसे अपना पेट भरेगें

नानी का चरखा कातेगें
और सुनेगें खूब कहानी
याद नहीं क्या आती सबकी
पूछेगें , बतलाओ नानी ?

बिजली की शक्ति जानेगें
बादल में पानी खोजेगें
चंदा मामा से शीतलता
नानी से तकली हम लेगें

अरमानों की डोर में सबको
बाँध धरा पर ले आएँगें
मामा-मामी , नानी सबकी
बात सभी को बतलाएँगें

जो भी बच्चा , जब भी चाहे
अरमानों की डोर लगाए
सपनों की एक पतंग बना कर
आसमान में झट उड़ जाए !

Wednesday, February 29, 2012

आओ भुला दें




  आओ भुला दें गुजरी बातें , गुजरे लम्हे , गुजरे पल 
 तेज हवा में चिंदी-चिंदी हो कर उड़ गये गुजरे कल 
 लम्हा-लम्हा जी लो जीवन , समय पलट न आएगा 
 सुबह उगा जो तपता सूरज , शाम हुए जाता है ढल !

 पी लो अपनी आँख का आँसू , मोती बन कर टपकेगा 
 अगर जो छलका ,वहां फलक पर इन्द्रधनुष बन चमकेगा 
 कभी दुखों के बादल छायें , घबरा कर न रुक जाना 
 सुख का चंदा गहन रात में आसमान पर दमकेगा !

Saturday, January 14, 2012

पौष मेला




आओ बच्चों तुम्हें घुमाएँ
आसमान की सैर कराएँ
यहाँ चमकते बिजली जैसे
कनकौए से तुम्हें मिलाएं !

आज यहाँ पर पंछी जैसी
ढेर पतंगें डोल रही हैं
लहराती - बलखाती कितने
रंग फिजां में घोल रही हैं !

तुम सोचोगे बात हुई क्या
क्यों डोले हैं ये मतवाली ?
इन्द्रधनुष सी सात रंग की
बजा-बजा नभ में ताली !

तब तुम जानों आज धरा से
ये पौष मनाने आई हैं
रंग-बिरंगे परिधानों में
इन्द्रधनुष सी छाई हैं !

सोने जैसी चम-चम करतीं
चाँदी जैसी चमकीली
पलक झपकते नीचे आती
डोर कहीं जो होए ढीली !

संग हवा के उपर-नीचे
दायें-बाएं झट मुड़ जाएँ
आओ हम को छू कर देखो
बात-बात में धौंस दिखाएँ !

कभी लड़ाएं पेंच किसी से
कभी लहराती नीचे आयें
फिर सन्नाती उपर जाकर
मार झपट्टा काट गिराएँ !

सीना तान गर्व से अपना
बांध पुछल्ला है इतराती
वश में नहीं आज वे अपने
लपट-झपट कर उडती जाती !

इत्ता बड़ा आसमाँ फिर भी
आगे-पीछे एक न चलतीं
तितली जैसी फर-फर करतीं
कटती-गिरती फिर से उडती !

कभी पौष तो कभी वसंत में
कभी खिचड़ी  तो कभी अनंत में
बांध डोर ये झट उड़ जातीं
हंस कर सब त्यौहार मनाती !




Sunday, November 13, 2011

बादल - पर्वत



मैं बादल 
तू पर्वत ही सही
तू लाख करे इंकार मगर
तुझसे मिलने मैं 
आऊंगा तो सही
तेरी हरी-भरी वादियों में 
छाऊँगा तो कहीं 
हर सुबह शबनम बन 
तेरी जुल्फों में 
मोतियों सा चमकूँगा
तेरे माथे को 
हौले से सहलाऊंगा
सरे शाम जब 
हवाएं सरसराएंगीं
मुझे साथ लिए आयेंगीं 
ठण्ड से कांपेंगीं
और आहिस्ते-आहिस्ते
तेरे आंचल में समा जाएँगी 
तब चुपके से 
तेरी सांसों को मैं सुनूंगा 
तू भी शायद 
मेरी धडकनों को गिन सके
मेरी पीर अगर बहेगी 
नीर बन कर  तो
तेरे अंदर भी तो 
दर्द के सोते बहेंगे
मेरे दिल में अगर 
बिजली की चमक है तो
तू भी तो लावा 
अपने दिल में लिए बैठी है
तू अचल-अडिग
कभी मुंह तो खोल
कुछ तो बोल
न आने दे वो घड़ी कि
तेरे अंदर का लावा दहक उठे और
मेरे अंदर की बिजली कहर ढा
हम दोनों को भस्म कर दे 

Sunday, August 14, 2011

पावस गीत




अनजाने मेघों की
परिचित सी दस्तक पर 
यादों के तेरे 
मैनें 
दीप जलाये

न खोलूं किवड़िया 
न खिड़की मैं खोलूं 
पावस की बदली 
पर सन्दों से छन कर 
पलकों में मेरी 
तेरे 
सपने सजाये

आँखों में छलकें 
या बूँद बन बरसें
पावस के मोती 
मैनें अँजुर में भर कर
प्रीत पगे धागे से 
दिल 
में टंकाये 

अम्बर की आहट पर 
धरती की चौखट पर
उडती फुहारों ने 
तालबद्ध हो कर 
सपनीले सावन के 
भीगे मिलन के 
चारों दिशाओं में 
गीत 
मधुर गाये

उनींदी हवाओं ने 
पागल घटाओं ने 
बिजुरी के झूलों में 
ऊँची सी पींग भर
हाथों में हाथ धर 
फिर से मिलन के 
सभी 
वादे निभाए 

अनजाने मेघों की
परिचित सी दस्तक पर 
यादों के तेरे 
मैनें दीप जलाये !

Wednesday, July 13, 2011

                  क्षणिकाएँ


खामोश रात के आँचल में गर सितारे ना होते
आसमान में पर चाँद के खूबसूरत नज़ारे ना होते
बरबाद रह जाता जिंदगी का सफर अगर
आप इस सफर में हमारे ना होते !

खामोशी भी कुछ कहती है
खामोशी की  भी जुबान होती है
सुनते हैं हम अपनी धडकनें ही खामोशी में
और जब धडकनें  ही खामोश हो जाए तब ?
खामोशी ही खामोशी तब रहती है !

कब दिन ढला , कब  शाम ढली
जब  रात हुई तब सोचा किए
वो कौन था जिसकी याद में
हम कभी रोया किए कभी तड़पा किए

Wednesday, June 22, 2011


      
         नव संदेश

वृक्षों ने फुनगी पर अपने
टाँग दिए हैं नव संदेश
तू जाग - जाग, ऐ मेरे देश ।

कहाँ गईं? सो गईं बहारें
देखो धरती में पडी दरारें
सो जाए कहीं न ये कलरव
खो जाए कहीं न ये पराग
तू जाग - जाग  , ऐ मेरे देश।

क्यों नहीं सोचता यह मानव?
क्या शेष  नहीं कुछ मानवता?
जब हम ही नहीं तो इस जीवन का
कुछ मोल भला फिर हो सकता?

न हमें भुला
तू हमें जिला
फैला दे जन-जन में संदेश
ऐ मेरे देश
ऐ मेरे देश
तू जाग - जाग ऐ मेरे देश ।
तू अरे जाग! ऐ मेरे देश ।

Saturday, May 21, 2011




बारिश की सुबह 



बारिश की एक सुबह सुहानी
इंद्रधनुष बैठा सुस्ताते
सोच रहा था आँख मूंद कर
सूरज दादा क्यों नहीं आते ?

सूरज दादा जब आएँगें 
तब ही तो मैं गाऊँगा
झूम उठेंगे नन्हें बच्चे
जब मैं नभ पर छाऊँगा ।

बादल की चादर को ताने
सूरज दादा थे अलसाए
सोच रहे थे इस मौसम में
क्यों न छुट्टी आज मनाएँ ।

तभी हवा के झौंके आए
बादल इधर-उधर छितराए
सूरज दादा फैंक के चादर
ले अंगड़ाई बाहर आए ।

बाहर आकर आसमान को
देख के हौले से मुस्काए
इंद्रधनुष भी लगा चमकने
सारे बच्चे खुश हो आए   
झट ले अपनी पतंग और चरखी
आसमान को रंगने आए ।

Saturday, May 14, 2011




सपनों की  पतंग 

आओ बच्चों तुम्हें सिखाएं
हम ऐसी एक पतंग बनाएं
सपनों का कागज हो जिसमें
अरमानों की डोर लगाएं 
देख हवा का रूख चुपके से 
बैठ पतंग पर खुद उड़ जाएं

आसमान पर उत्तर में है
चमकीला मनमोहक ध्रुव तारा
वहीं चांद  पे बैठी नानी 
देख रही होगी जग सारा ।

हम मामा के स्रंग बादल पर
आसमान की सैर करेंगें
मालपुए जो मामी देगीं
उनसे अपना पेट भरेंगें ।

नानी का चरखा कातेंगें
और सुनेंगें खूब कहानी
याद नहीं क्या आती सबकी
पूछेंगें , बतलाओ नानी ?

बिजली की शक्ति जानेंगें
बादल में पानी खोजेंगें
चंदा मामा से शीतलता
नानी से  हम तकली लेंगें ।

अरमानों की डोर में सबको
बांध धरा पर ले आएंगें
मामा-मामी , नानी सबकी
बात सभी को बतलाएंगें ।

जो भी बच्चा जब भी चाहे
अरमानों की डोर सजाए
सपनों की एक पतंग बना कर
आसमान में झट उड़ जाए ।

Wednesday, January 12, 2011

  
कैसे आता है वसंत ? 

कलियों के खिल जाने से
भौरों के गुन-गुन गाने से
और तितली के मंडराने से
फूलों में छाता है वसंत

सूरज की दिशा बदलने से
तिल-गुड़ का भोग लगाने से
और खिचड़ी पर्व मनाने से
बागों में गाता है वसंत

नव-गीत हवा के गाने से
किरणों के नभ पर छाने से
पंछी के पर फैलाने से
बन पतंग फहराता है वसंत

आमों में बौरें आने से
कोयल के कुहु-कुहु गाने से
और सरसों के लहराने से
मन को भरमाता है वसंत

पत्तों की सूखी कुटिया में
मोती सी चमकती बूंदों में
कोरों पर ठहरी शबनम में
भोले बचपन की आंखों में
नन्हें पैरों की छापों में
निश्छल भोली मुस्कानों में
गालों के गड्ढों में हॅंसकर
घुंघराले बालों में फॅंसकर
दलियानों में, खलियानों में
धूल भरी पगडंडी में
हौले से चलता-चलता
चोखट पर आता है वसंत
धरती पर गाता है वसंत
मन को पगलाता  है वसंत
जग में  छा जाता है वसंत

सच बोलो तो....
ऐसे आता है वसंत !
ऐसे आता है वसंत !


Saturday, January 1, 2011



नव वर्ष की शुभ कामनाएं


नव वर्ष के सूरज ने जब

अपनी आंखें खोलीं

दूर क्षितिज पर थिरक उठीं तब

नन्हीं किरणे भोली

पीपल के पत्तों पर मचलीं

मोती बन कर नीचे फिसलीं

अंजुर में भर कर वह मोती

मॉंग रहे हम आज दुआएं

मंगलमय हो  वर्ष आपका

बना रहे यह हर्ष आपका

2011

Thursday, December 23, 2010




रात बहुत ठंड थी
चाँद को पड़ गए पाले
धरा ने जला कर
सूरज का अलाव
उसके  हाथ सेंक डाले ।

Saturday, December 11, 2010

क्षितिज



क्षितिज 

जब धरा बढ़ी और गगन मिला
तब क्षितिज बना
क्षितिज अनंत और विशाल
इसका कोई ओर नहीं , कोई छोर नहीं
पर है गहन अस्तित्व
हर सुबह सूर्य वहीं से उगता है
और शाम ढले चांद समंदर के आगोश से
मुस्कुराता हुआ उठता है
आसमान से पंक्षी उड़ते हुए आते हैं और क्षितिज को छूते हुए
जाने कौन देश पहुँच जाते है
संसार को चलायमान होने का नाम क्षितिज है
धरा , गगन और पाताल होने का नाम क्षितिज है ।
.

Friday, December 3, 2010



  मासूम चाहत

जब बादल नभ पर छाते हैं

जब  शबनम नगमें गाती है

जब बगुले पांत में उड.ते हैं

जब फूल  शूल में खिलते हैं

जब धानी चुनरी उड.ती है

जब पवन संदेशा लाती है 

जब पायल रुन - झुन करती है

जब झूला पींगे भरता है

तब दिल हौले से कहता है

 काश ! यहाँ तुम भी होते ,

 काश ! यहाँ तुम भी होते ।




































Saturday, November 27, 2010


  याद की खिड.की

कुदरत ने
मेरी इस जिंदगी में
तुम्हारी याद की
एक खिड.की बना दी
और बना दीं  सैंकडों पगडंडियाँ
कितने भी रास्ते बदलूँ
हर रास्ता,
तुम तक जा पहुँचता है!

Wednesday, November 24, 2010

पल और कल

   
  पल और कल

आग लगा दो तन के उपर 
तन का क्या है जल जाएगा
लेकिन दिल का दर्द तो दिल के 
भीतर दिल में रह जाएगा !

कसम दिला दो सिर की अपनी
ओंठ के उपर ताला जड दो
लेकिन फिर भी आंख का पानी 
जो कहना है कह जाएगा !

चुनवा दो कितनी दीवारें
हाथ-पांव में बेडी जड दो
लेकिन सच्चे दिल का फिर भी
ताजमहल न ढह पाएगा !

आज मिला जो मानव जीवन
बेशकीमती , बात मान लो
लम्हा-लम्हा जी लो पल का
आज गया न कल आएगा !

Sunday, November 7, 2010

रिश्तों की परिभाषा

            
 रिश्तों की परिभाषा

रिश्तों की सच्ची परिभाषा , हम तब जीवन में लाते
पैदा होते ही मिल जाते , जब ढेरों रिश्ते-नाते

रिश्ते होते सुख के - दुख के ,पीर बॉंटते - पीर मानते
एक सुनी आवाज कहीं तो ,छोड़ हाथ का काम भागते

जात न होती ,पांत न होती , छोटे -बड़े का भेद न होता
न को ऊँचा ,न कोई नीचा , कहीं क्षमा कहीं खेद न होता 

कोई रोक न होती टोक न होती ,दिल ही कहता दिल ही सुनता
न कोई लम्हा दुख का होता , न मिलना और बिछड़ना होता

ऐसे पल जब हमको मिलते , तब ही सच्चा जीवन होता
न सुख तेरा न दुख मेरा , न बंधन इसका-उसका होता 

रिश्तों की इस परिभाषा को  , हम तब ही खुद में पाते
जब हम रिश्तों में और रिश्ते , हम में आकर बॅंध जाते