अनंत आकाश में उड़ते हुए स्वछंद पंछियों के झुंड में शामिल एक नया पंछी .....जो अनुभूति रखता है इंसानियत के ,मानवता के मूल्यों की ,जो न सिर्फ कागज पर उतारता है ......अपने और दूसरों के भावों को ,दर्दों को बल्कि रंगों की दुनिया में ले जाता है उन भावनाओं को और चित्रित भी करता है !
Tuesday, November 27, 2012
Sunday, November 25, 2012
Sunday, November 11, 2012
Saturday, November 3, 2012
बहारें फिर से आयेगीं
शाम हुई हम धीरे-धीरे
चले नदी के तीरे-तीरे
आसमान के माथे देखो
कितनी गहरी पड़ीं लकीरें
पेड़ का पीला पाखर देखा
हमने हँस कर उस से पूछा
क्यूँ तुम इतने पीले-पीले
नैन तुम्हारे गीले-गीले
विदा बिछड़ने की अब आई
मौसम ने ले ली अंगडाई
साथ है छूटा अब उड़ लेगें
संग हवा के हम बिख्ररेगें
हवा तुनक गई बोली मैं तो
काम हूँ हरकारे का करती
दिन भर उडती ले कर तुमको
कभी यहाँ कभी वहां हूँ धरती
यही सृष्टि की रीत निराली
आज हुई जो खाली डाली
नए पात आएँगें उस पर
छाएगी उस पर खुशहाली
Tuesday, October 30, 2012
जरुरी तो नहीं
तुम साथ चलो मेरे
और बात करो मुझसे
यह जरुरी तो नहीं
तुम बात करो मुझसे
और साथ चलो मेरे
यह जरुरी तो नहीं
जो घाटियों में गूंजें
वो गीत हो हमारे
यह जरुरी तो नहीं
जो गीत हों हमारे
वो घाटियों में गूंजें
यह जरुरी तो नहीं
जो बात हो जुबान पर
वही बात बसे दिल में
यह जरूरी तो नहीं
और जो बात बसे दिल में
वही बात हो जुबान पर
यह जरूरी तो नहीं
Saturday, October 20, 2012
एक शाम
कल
मुझको पगडण्डी पर
चलते
एक
शाम मिली जो
तन्हा थी
वो
तन्हा थी मैं
थी तन्हा
वो
मुस्काई
मैं
मुस्काई
वो
मुस्काई
बस
! मौन हमारी भाषा
थी
हवा
थम गई , भूल
के बहना
लगी
कान में सबके
कहना
एक
शाम कुछ भटक
गई है
पगडंडी
पर अटक गई
है
क्यूँ
तन्हा तुम मैनें
पूछा ?
क्यूँ
तन्हा तुम उसने
पूछा ?
गम
मुझे कहीं था
सपनों का
गम
उसे कहीं था
अपनों का
सूरज
के संग दिन
भर भटकी
सांझ
हुई चौखट पर
अटकी
अब
वो मुझसे पूछ
रहा है क्या
मैं जाऊं ?
उसके
माथे के तिनकों
से
बालों
को मैनें सुलझाया
दूबों
के कोरों पर
अटकी शबनम को
हौले
से अंजुल में
भर कर
उसकी
आँखों को धुलवाया
मासूम
कांपते अधरों ने
जब
सूरज को अलविदा
कहा
मेरा
दिल रो कर
बोला
क्यों
तूने इतना दर्द सहा
?
वो
सम्भल गई
बोली
, सुन अपनी उमर
गई
वह
तन्हा थी , मैं
थी तन्हा
पर
नहीं अभी हम
तन्हा थे
हम
एक राह के
राही थे
हम
तन्हाई के साथी
थे
Thursday, October 18, 2012
Wednesday, August 15, 2012
ठहरा हुआ पानी
ठहरे हुए पानी में , हर चीज ठहर जाती है
ठहरे हुए पानी में , परछाईँ नजर आती है !
ठहरे हुए पानी में , वो चाँद नजर आता है
तन्हाई से घबरा कर , जो पानीमें छुप जाता है !
कभी कभी मिलता है , पल भर के लिए कोई हमें
पर उसकी याद हमें , उम्र भर रह जाती है !
चाँद के ना होने का , क्यों रात से हम शिकवा करें
बस एक सितारा भी हो , तो रात हँस के गुजर जाती है !
Friday, April 13, 2012
आसमान की सैर
आओ बच्चो तुम्हें सिखाएं
हम एक ऐसी पतंग बनाएं
सपनों का कागज हो उसमें
अरमानों की डोर लगाएँ
देख हवा का रुख , चुपके से
बैठ पतंग पर खुद उड़ जाएँ !
आसमान पर उत्तर में है
चमकीला मोहक ध्रुब तारा
वहीं चाँद के अंदर बैठी
नानी देख रही जग सारा
हम मामा के संग बादल पर
आसमान की सैर करेगें
मालपुए जो मामी देगीं
उनसे अपना पेट भरेगें
नानी का चरखा कातेगें
और सुनेगें खूब कहानी
याद नहीं क्या आती सबकी
पूछेगें , बतलाओ नानी ?
बिजली की शक्ति जानेगें
बादल में पानी खोजेगें
चंदा मामा से शीतलता
नानी से तकली हम लेगें
अरमानों की डोर में सबको
बाँध धरा पर ले आएँगें
मामा-मामी , नानी सबकी
बात सभी को बतलाएँगें
जो भी बच्चा , जब भी चाहे
अरमानों की डोर लगाए
सपनों की एक पतंग बना कर
आसमान में झट उड़ जाए !
Wednesday, February 29, 2012
आओ भुला दें
आओ भुला दें गुजरी बातें , गुजरे लम्हे , गुजरे पल
तेज हवा में चिंदी-चिंदी हो कर उड़ गये गुजरे कल
लम्हा-लम्हा जी लो जीवन , समय पलट न आएगा
सुबह उगा जो तपता सूरज , शाम हुए जाता है ढल !
पी लो अपनी आँख का आँसू , मोती बन कर टपकेगा
अगर जो छलका ,वहां फलक पर इन्द्रधनुष बन चमकेगा
कभी दुखों के बादल छायें , घबरा कर न रुक जाना
सुख का चंदा गहन रात में आसमान पर दमकेगा !
Saturday, January 14, 2012
पौष मेला
आओ बच्चों तुम्हें घुमाएँ
आसमान की सैर कराएँ
यहाँ चमकते बिजली जैसे
कनकौए से तुम्हें मिलाएं !
आज यहाँ पर पंछी जैसी
ढेर पतंगें डोल रही हैं
लहराती - बलखाती कितने
रंग फिजां में घोल रही हैं !
तुम सोचोगे बात हुई क्या
क्यों डोले हैं ये मतवाली ?
इन्द्रधनुष सी सात रंग की
बजा-बजा नभ में ताली !
तब तुम जानों आज धरा से
ये पौष मनाने आई हैं
रंग-बिरंगे परिधानों में
इन्द्रधनुष सी छाई हैं !
सोने जैसी चम-चम करतीं
चाँदी जैसी चमकीली
पलक झपकते नीचे आती
डोर कहीं जो होए ढीली !
संग हवा के उपर-नीचे
दायें-बाएं झट मुड़ जाएँ
आओ हम को छू कर देखो
बात-बात में धौंस दिखाएँ !
कभी लड़ाएं पेंच किसी से
कभी लहराती नीचे आयें
फिर सन्नाती उपर जाकर
मार झपट्टा काट गिराएँ !
सीना तान गर्व से अपना
बांध पुछल्ला है इतराती
वश में नहीं आज वे अपने
लपट-झपट कर उडती जाती !
इत्ता बड़ा आसमाँ फिर भी
आगे-पीछे एक न चलतीं
तितली जैसी फर-फर करतीं
कटती-गिरती फिर से उडती !
कभी पौष तो कभी वसंत में
कभी खिचड़ी तो कभी अनंत में
बांध डोर ये झट उड़ जातीं
हंस कर सब त्यौहार मनाती !
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